लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
विनय के पास
इसका एक ही
सम्भावित उत्तार था। सोफी
का आचरण उसे
आपत्तिाजनक प्रतीत होता था।
उसे देखते ही
उसने इस बात
को आश्चर्य के
रूप में प्रकट
भी किया था।
पर इस समय
वह इस भाव
को प्रकट न
कर सका। यह
कितना बड़ा अन्याय
होता, कितनी घोर
निर्दयता! वह जानता
था कि सोफी
ने जो कुछ
किया है, वह
एक धाार्मिक तत्तव
के अधाीन होकर।
वह इसे ईश्वरीय
प्रेरणा समझ रही
है। अगर ऐसा
न होता, तो
शायद अब तक
वह हताश हो
गई होती। ऐसी
दशा में कठोर
सत्य वज्रपात के
समान होता। श्रध्दापूर्ण
तत्परता से बोले-सोफी, तुम यह
प्रश्न करके अपने
ऊपर और उससे
अधिाक मेरे ऊपर
अन्याय कर रही
हो। मेरे लिए
तुमने अब तक
त्याग-ही-त्याग
किए हैं, सम्मान,
समृध्दि, सिध्दांत एक की
भी परवा नहीं
की। संसार में
मुझसे बढ़कर कृतघ्न
और कौन प्राणी
होगा, जो मैं
इस अनुराग का
निरादर करूँ।
यह कहते-कहते
वह रुक गया।
सोफी बोली-कुछ
और कहना चाहते
हो, रुक क्यों
गए? यही न
कि तुम्हें मेरा
क्लार्क के साथ
रहना अच्छा नहीं
लगता। जिस दिन
मुझे निराशा हो
जाएगी कि मैं
मिथ्याचरण से तुम्हारा
कुछ उपकार नहीं
कर सकती, उसी
दिन मैं क्लार्क
को पैरों से
ठुकरा दूँगी। इसके
बाद तुम मुझे
प्रेम-योगिनी के
रूप में देखोगे,
जिसके जीवन का
एकमात्रा उद्देश्य होगा तुम्हारे
ऊपर समर्पित हो
जाना।
[3/8, 14:22] AliYa kHaN
नायकराम मुहल्लेवालों से बिदा
होकर उदयपुर रवाना
हुए। रेल के
मुसाफिरों को बहुत
जल्द उनसे श्रध्दा
हो गई। किसी
को तम्बाकू मलकर
खिलाते, किसी के
बच्चे को गोद
में लेकर प्यार
करते। जिस मुसाफिर
को देखते, जगह
नहीं मिल रही
है, इधर-उधर
भटक रहा है,
जिस कमरे में
जाता है, धाक्के
खाता है, उसे
बुलाकर अपनी बगल
में बैठा लेते।
फिर जरा देर
में सवालों का
ताँता बाँधा देते-कहाँ मकान
है? कहाँ जाते
हो? कितने लड़के
हैं? क्या कारोबार
होता है? इन
प्रश्नों का अंत
इस अनुरोधा पर
होता कि मेरा
नाम नायकराम पंडा
है; जब कभी
काशी जाओ,मेरा
नाम पूछ लो,
बच्चा-बच्चा जानता
है; दो दिन,
चार दिन, महीने,
जब तक इच्छा
हो, आराम से
काशीवास करो; घर-द्वार, नौकर-चाकर
सब हाजिर हैं,
घर का-सा
आराम पाओगे; वहाँ
से चलते समय
जो चाहो, दे
दो, न दो,
घर आकर भेज
दो, इसकी कोई
चिंता नहीं। यह
कभी मत सोचो,
अभी रुपये नहीं
हैं, फिर चलेंगे।
शुभ काम के
लिए महूरत नहीं
देखा जाता, रेल
का किराया लेकर
चल खड़े हो।
काशी में तो
मैं हूँ ही,किसी बात
की तकलीफ न
होगी। काम पड़
जाए तो जान
लड़ा दें, तीरथ-जात्रा के लिए
टालमटोल मत करो।
कोई नहीं जानता,
कब बड़ी जात्रा
करनी पड़ जाए,
संसार के झगड़े
तो सदा लगे
ही रहेंगे।
दिल्ली पहुँचे, तो कई
नए मुसाफिर गाड़ी
में आए। आर्य
समाज के किसी
उत्सव में जा
रहे थे। नायकराम
ने उनसे वही
जिरह शुरू की।
यहाँ तक कि
एक महाशय गर्म
होकर बोले-तुम
हमारे बाप-दादे
का नाम पूछकर
क्या करोगे? हम
तुम्हारे फंदे में
फँसनेवाले नहीं हैं।
यहाँ गंगाजी के
कायल नहीं और
न काशी ही
को स्वर्गपुरी समझते
हैं।
नायकराम जरा भी
हताश नहीं हुए।
मुस्कराकर बोले-बाबूजी,
आप आरिया होकर
ऐसा कहते हैं।
आरिया लोगों ही
ने तो हिंदू-धारम की
लाज रखी, नहीं
तो अब तक
सारा देश मुसलमान-किरसतान हो गया
होता। हिंदू-धारम
के उध्दारक होकर
आप काशी को
भला कैसे न
मानेंगे! उसी नगरी
में राजा हरिसचंद
की परीक्षा हुई
थी, वहीं बुध्द
भगवान ने अपना
धारम-चक्र चलाया
था, वहीं शंकर
भगवान् ने मंडल
मिसिर से सास्त्रार्थ
किया था; वहाँ
जैनी आते हैं,
बौध्द आते हैं,
वैस्नव आते हैं,
वह हिंदुओं की
नगरी नहीं है,
सारे संसार की
नगरी वही है।
दूर-दूर के
लोग भी जब
तक काशी के
दरसन न कर
लें, उनकी जात्रा
सुफल नहीं होती।
गंगाजी मुकुत देती हैं,
पाप काटती हैं,
यह सब तो
गँवारों को बहलाने
की बातें हैं।
उनसे कहो कि
चलकर उस पवित्रा
नगरी को देख
आओ, जहाँ कदम-कदम पर
आरिया जाति के
निसान मिलते हैं,
जिसका नाम लेते
ही सैकड़ों महात्माओं,
रिसियों-मुनियों की याद
आ जाती है,
तो उनकी समझ
में यह बात
न आएगी। पर
जथारथ में बात
यही है। कासी
का महातम इसीलिए
है कि वह
आरिया जाति की
जीति-जागती पुरातन
पुरी है।
इन महाशयों को फिर
काशी की निंदा
करने का साहस
न हुआ। वे
मन में लज्जित
हुए और नायकराम
के धार्मिक ज्ञान
के कायल हो
गए, हालाँकि नायकराम
ने ये थोड़े-से वाक्य
ऐसे अवसरों के
लिए किसी व्याख्याता
के भाषण से
चुनकर रट लिए
थे।
रेल के स्टेशन
पर वह जरूर
उतरते और रेल
के कर्मचारियों का
परिचय प्राप्त करते।
कोई उन्हें पान
खिला देता, कोई
जलपान करा देता।
सारी यात्रा समाप्त
हो गई, पर
वह लेटे तक
नहीं, जरा भी
ऑंख नहीं झपकी।
जहाँ दो मुसाफिरों
को लड़ते-झगड़ते
देखते, तुरंत तीसरे बन
जाते और उनमें
मेल करा देते।
तीसरे दिन वह
उदयपुर पहुँच गए और
रियासत के अधिाकारियों
से मिलते-जुलते,
घूमते-घामते जसवंतनगर
में दाखिल हुए।
देखा, मिस्टर क्लार्क
का डेरा पड़ा
हुआ है। बाहर
से आने-जानेवालों
की बड़ी जाँच-पड़ताल होती है,
नगर का द्वार
बंद-सा है,लेकिन पंडे को
कौन रोकता? कस्बे
में पहुँचकर सोचने
लगे, विनयसिंह से
क्योंकर मुलाकात हो? रात
को तो धार्मशाला
में ठहरे, सबेरा
होते ही जेल
के दारोगा के
मकान में जा
पहुँचे। दारोगाजी सोफी को
बिदा करके आए
थे और नौकर
को बिगड़ रहे
थे कि तूने
हुक्का क्यों नहीं भरा,इतने में
बरामदे में पंडाजी
की आहट पाकर
बाहर निकल आए।
उन्हें देखते ही नायकराम
ने गंगा-जल
की शीशी निकाली
और उनके सिर
पर जल छिड़क
दिया।
दारोगाजी ने अन्यमनस्क
होकर कहा-कहाँ
से आते हो?
नायकराम-महाराज, अस्थान तो
परागराज है; पर
आ रहा हूँ
बड़ी दूर से।
इच्छा हुई, इधार
भी जजमानों को
आसीरबाद देता चलूँ।
दारोगाजी का लड़का,
जिसकी उम्र चौदह-पंद्रह वर्ष की
थी, निकल आया।
नायकराम ने उसे
नख से शिख
तक बड़े धयान
से देखा, मानो
उसके दर्शनों से
हार्दिक आनंद प्राप्त
प्राप्त हो रहा
है और तब
दारोगाजी से बोले-यह आपके
चिरंजीव पुत्र हैं न?
पिता-पुत्र की
सूरत कैसी मिलती
है दूर से
ही पहचाना जाए।
छोटे ठाकुर साहब,
क्या पढ़ते हो?
लड़के ने कहा-ऍंगरेजी पढ़ता हूँ।
नायकराम-यह तो
मैं पहले ही
समझ गया था।
आजकल तो इसी
विद्या का दौरदौरा
है, राजविद्या ठहरी।
किस दफे में
पढ़ते हो भैया?
दारोगा-अभी तो
हाल ही में
ऍंगरेजी शुरू की
है, उस पर
भी पढ़ने में
मन नहीं लगाते,
अभी थोड़ी ही
पढ़ी है।
लड़के ने समझा,
मेरा अपमान हो
रहा है। बोला-तुमसे से तो
ज्यादा पढ़ा हूँ।
नाकयराम-इसकी कोई
चिंता नहीं, सब
आ जाएगा, अभी
इनकी औस्था ही
क्या है। भगवान
की इच्छा होगी,
तो कुल का
नाम रोसन कर
देंगे। आपके घर
पर कुछ जगह-जमीन भी
है?